Rajasthan History : Prithviraj Chouhan Tritiya | पृथ्वीराज चौहान तृतीय

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Rajasthan History : Prithviraj Chouhan Tritiya | पृथ्वीराज चौहान तृतीय – इस भाग में आपको Prithviraj Chouhan Tritiya के किये गए संघर्ष तथा युद्ध जैसे तराइन का प्रथम और द्वितीय युद्ध आदि के बारे में विस्तारपुर्वक जानकारी मिलेगी |


पृथ्वीराज चौहान तृतीय –

  • चौहान वंश के अंतिम प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय थे।
  • इनका जन्म 1166 ई. ( वि.सं.1223 ) में अजमेर के चौहान शासक सोमेश्वर की रानी कर्पूरीदेवी की कोख से हुआ।
  • रानी कर्पुरिदेवी दिल्ली के शासक अनंगपाल तोमर की पुत्री थी।
  • पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जन्म अन्हिलपाटन (गुजरात) में हुआ है।
  • पिता के देहांत के कारण मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में पृथ्वीराज तृतीय अजमेर की गद्दी के स्वामी बने।
  • उस समय कदम्बदास (कैमास) उनका सुयोग्य प्रधानमंत्री था।
  • पृथ्वीराज ने अजमेर राज्य की सीमाएँ उत्तर में थानेश्वर से दक्षिण में जहाजपुर ( मेवाड़) तक विस्तृत थी।
  • उत्तरी सीमा पर कन्नौज एवं दक्षिणी सीमा पर गुजरात उसके समीपस्थ शत्रु थे।
  • उत्तर-पश्चिमी सीमा पर मुस्लिम आक्रमणकारियों की गतिविधियाँ बढ़ती जा रही थी।
  • ऐसे समय में बालक पृथ्वीराज की ओर से उसकी माता कर्पूरीदेवी ने बड़ी कुशलता एवं कूटनीति से शासन कार्य संभाला।
  • बहुत कम समय में ही पृथ्वीराज-तृतीय ने अपनी योग्यता एवं वीरता से समस्त शासन अपने हाथ में ले लिया।
  • उसने अपने चारों ओर के शत्रुओं का एक-एक कर के खात्मा किया एवं दलपंगुल (विश्व विजेता) की उपाधि धारण की।
  • सम्राट पृथ्वीराज ने तुर्क आक्रमणकारियों का प्रबल प्रतिरोध कर उन्हें बुरी तरह परास्त किया।
  • यह वीर सेनानायक एवं यौद्धा किन्हीं कारणों से मुस्लिम आक्रांता मुहम्मद गौरी से तराइन के द्वितीय युद्ध में हार गया।
  • देश में मुस्लिम शासन की नींव पड़ गई।

प्रमुख सैनिक अभियान व विजयें –

  • नागार्जुन एवं भण्डानकों का दमन –
    • पृथ्वीराज के राजकाज संभालने के कुछ समय बाद उसके चचेरे भाई नागार्जुन ने विद्रोह कर दिया।
    • वह अजमेर का शासन प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था।
    • अतः पृथ्वीराज ने सर्वप्रथम अपने मंत्री कैमास की सहायता से सैन्य बल के साथ उसे पराजित कर गुडापुरा (गुड़गाँव) एवं आसपास का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिये।
    • इसके बाद 1182 ई. में पृथ्वीराज ने भरतपुर-मथुरा क्षेत्र में भण्डानकों के विद्रोहों का अंत किया।
  • महोबा के चंदेलों पर विजय –
    • पृथ्वीराज ने 1182 ई. में ही महोबा के चंदेल शासक परमाल (परमार्दी) देव को हराकर उसे संधि के लिए विवश किया।
    • उसके कई गाँव अपने अधिकार में ले लिए।
  • चालुक्यों पर विजय –
    • सन् 1184 के लगभग गुजरात के चालुक्य शासक भीमदेव-द्वितीय के प्रधानमंत्री जगदेव प्रतिहार एवं पृथ्वीराज की सेना के मध्य नागौर का युद्ध हुआ।
    • जिसके बाद दोनों में संधि हो गई एवं चौहानों की चालुक्यों से लम्बी शत्रुता का अंत हुआ।
  • कन्नौज से संबंध –
    • पृथ्वीराज के समय कन्नौज पर गहड़वाल शासक जयचन्द का शासन था।
    • जयचंद एवं पृथ्वीराज दोनों की राज्य विस्तार की महत्त्वाकांक्षाओं ने उनमें आपसी वैमनस्य उत्पन्न कर दिया था।
    • उसके बाद उसकी पुत्री संयोगिता को पृथ्वीराज द्वारा स्वयंवर से उठा कर ले जाने के कारण दोनों की शत्रुता और बढ़ गई थी।
    • इसी वजह से तराइन के युद्ध में जयचंद ने पृथ्वीराज की सहायता न कर मुहम्मद गौरी की सहायता की।

पृथ्वीराज और मोहम्मद गौरी (Prithviraj Chouhan Tritiya) : –

  • पृथ्वीराज के समय भारत के उत्तर-पश्चिम में गौर प्रदेश पर शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी का शासन था।
  • उसने गजनी के शासक सुल्तान मलिक खुसरो को हराकर गजनवी द्वारा अधिकृत सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था।
  • मुहम्मद गौरी धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार करता जा रहा था।
  • सन् 1178 में उसने पंजाब, मुल्तान एवं सिंध को जीतकर अपने अधीन कर लिया था।

तराइन का प्रथम युद्ध –

  • पृथ्वीराज के दिल्ली, हाँसी, सरस्वती एवं सरहिंद के दुर्गों को जीतकर अपने अधिकार में कर लेने के बाद 1190-91 में गौरी ने सरहिंद (तबरहिंद) पर अधिकार कर अपनी सेना वहाँ रख दी।
  • पृथ्वीराज अपने क्षेत्र से आक्रांताओं को भगाने हेतु सरहिंद पर आक्रमण करने हेतु बढ़ा ।
  • मुहम्मद गौरी अपने विजित क्षेत्र को बचाने हेतु विशाल सेना सहित तराइन के मैदान (हरियाणा के करनाल एवं थानेश्वर के मध्य तराइन (तरावड़ी) के मैदान में आ डटा।
  • पृथ्वीराज भी अपनी सेना सहित वहाँ पहुँचा
  • दोनों सेनाओं के मध्य 1191 ई. में तराइन का प्रथम युद्ध हुआ जिसमें दिल्ली के गवर्नर गोविन्दराज ने मुहम्मद गौरी को घायल कर दिया।
  • घायल गौरी युद्ध भूमि से बाहर निकल गया एवं कुछ ही समय में गौरी की सेना भी मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई।
  • पृथ्वीराज ने इस-विजय के बाद भागती हुई मुस्लिम सेना का पीछा न कर मुहम्मद गौरी व उसकी सेना को जाने दिया
  • पृथ्वीराज ने ऐसा कर बड़ी भूल की जिसकी कीमत उसे अगले वर्ष ही तराइन के द्वितीय युद्ध में चुकानी पड़ी।

तराइन का द्वितीय युद्ध –

  • प्रथम युद्ध में जीत के बाद पृथ्वीराज निश्चित हो आमोद प्रमोद में व्यस्त हो गया जबकि गौरी ने पूरे मनोयोग से विशाल सेना पुन: एकत्रित की एवं युद्ध की तैयारियों में व्यस्त रहा।
  • एक वर्ष बाद 1192 ई. में ही गौरी अपनी विशाल सेना के साथ पृथ्वीराज से अपनी हार का बदला लेने हेतु तराइन के मैदान में पुनः आ धमका।
  • पृथ्वीराज को समाचार मिलते ही वह भी सेना सहित युद्ध मैदान की ओर बढ़ा।
  • उसके साथ उसके बहनोई मेवाड़ शासक समरसिंह एवं दिल्ली के गवर्नर गोविन्द राज भी थे।
  • दोनों सेनाओं के मध्य तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ जिसमें साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति से मुहम्मद गौरी की विजय हुई।
  • अजमेर एवं दिल्ली पर उसका अधिकार हो गया।
  • तराइन के युद्ध के बाद गौरी ने अजमेर का शासन भारी कर के बदले पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्द राज को दे दिया।
  • परन्तु कुछ समय बाद ही पृथ्वीराज के भाई हरिराज ने उसे पदच्युत कर अजमेर पर अपना अधिकार कर लिया।
  • तब गोविन्दराज ने रणथम्भौर में चौहानवंश के शासन की शुरूआत की।
  • गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने हाँसी के निकट चौहान सेना को हरा दिया।
  • इसके बाद मुहम्मद गौरी ने भारत में विजित अपने क्षेत्रों का प्रशासन अपने दास सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को संभला दिया एवं स्वयं लौट गया।
  • ऐबक ने अजमेर में विग्रहराज चतुर्थ द्वारा निर्मित्त संस्कृत पाठशाला को तुड़वाकर ढाई दिन के झोंपड़े (मस्जिद) में परिवर्तित करवा दिया।

महत्तवपूर्ण तथ्य (Prithviraj Chouhan Tritiya) : –

  • तराइन का द्वितीय युद्ध भारतीय इतिहास की एक निर्णायक एवं युग परिवर्तनकारी घटना साबित हुआ।
  • इससे भारत में स्थायी मुस्लिम साम्राज्य का प्रारंभ हुआ।
  • मुहम्मद गौरी भारत में मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक बना।
  • इसके बाद धीरे-धीरे गौरी ने कन्नौज, गुजरात, बिहार आदि क्षेत्रों को जीता
  • कुछ ही वर्षों में उत्तरी भारत पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का शासन स्थापित हो गया।
  • तराइन के युद्धों का विवरण कवि चन्द्र बरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो‘, हसन निजामी के ‘ताजुल मासिर’ एवं सिराज के तबकात-ए-नासिरी में है।
  • तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय का प्रमुख कारण गौरी की कुशल युद्ध नीति थी।
  • पृथ्वीराज का अपने चारों ओर के राजाओं को अपना शत्रु बना लेना।
  • उसमें दूरदर्शिता का अभाव, युद्ध की तैयारी न कर आमोद-प्रमोद में व्यस्त रहना।
  • दुश्मन को कम कर आँकना आदि अन्य कारण थे।
  • जिनकी वजह से पृथ्वीराज तृतीय का तुर्क प्रतिरोध असफल हो गया।
  • देश अन्ततः सैकड़ों वर्षों तक गुलामी की जंजीर में जकड़ा रहा।
  • पृथ्वीराज चौहान-तृतीय एक कुशल सेनानायक एवं योद्धा के साथ-साथ साहित्यकारों का भी आदर करता था।
  • उसके दरबार में पृथ्वीराज विजय का लेखक ‘जयानक’, पृथ्वीराज रासो के लेखक एवं उसके मित्र चंद्र बरदाई, जनार्दन, वागीश्वर आदि विद्वानों को आश्रय प्राप्त था।

FAQ (Prithviraj Chouhan Tritiya) :

1. चौहान वंश का अंतिम प्रतापी शासक कौन था?

ANS. चौहान वंश के अंतिम प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय थे।

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2. पृथ्वीराज चौहान का जन्म कब हुआ?

ANS. इनका जन्म 1166 ई. ( वि.सं.1223 ) में अजमेर के चौहान शासक सोमेश्वर की रानी कर्पूरीदेवी की कोख से हुआ।

3. पृथ्वीराज चौहान कितने वर्ष की आयु में अजमेर की गद्दी पर बैठे?

ANS. पिता के देहांत के कारण मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में पृथ्वीराज तृतीय अजमेर की गद्दी के स्वामी बने।

4. संयोगिता चौहान किसकी पुत्री थी?

ANS. कन्नौज के गहड़वाल शासक जयचन्द की पुत्री थी।

5. तराइन का प्रथम युद्ध कब हुआ?

ANS. 1191 ई. में तराइन का प्रथम युद्ध हुआ जिसमें दिल्ली के गवर्नर गोविन्दराज ने मुहम्मद गौरी को घायल कर दिया।

6. तराइन का द्वितीय युद्ध कब हुआ?

ANS. तराइन के प्रथम युद्ध के एक वर्ष बाद 1192 ई. में ही गौरी अपनी विशाल सेना के साथ पृथ्वीराज से अपनी हार का बदला लेने हेतु तराइन के मैदान में पुनः आ धमका।

7. पृथ्वीराज विजय का लेखक कौन था?

ANS. इस का लेखक जयानक था।

8. तराइन के युद्धों का वर्णन किस किस ग्रंथों में हुआ है?

ANS. तराइन के युद्धों का विवरण कवि चन्द्र बरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’, हसन निजामी के ‘ताजुल मासिर’ एवं सिराज के तबकात-ए-नासिरी में है।

9. अजमेर में संस्कृत पाठशाला का निर्माण किसने करवाया था?

ANS. विग्रहराज चतुर्थ ने अजमेर में संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया था।

10. संस्कृत पाठशाला को तुडवा कर किसने उसे अढाई दिन के झोंपड़े में बदल दिया था?

ANS. मुहम्मद गौरी के दास सेनापति क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने विग्रहराज चतुर्थ की बनवाई गयी संस्कृत पाठशाला को तुडवा कर अढाई दिन के झोंपड़े (मस्जिद) में बदल दिया।

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